शिवलिंग के बारे में भ्रांतियां
शिवलिंग के बारे में लोगों को इतनी ज्यादा भ्रांतियां हैं और
वो भी उसके नाम को लेकर !! इन भ्रांतियों को समझने की आवश्यकता है.
सबसे पहली बात संस्कृत में "लिंग" का अर्थ होता है प्रतीक।
जननेंद्रि के लिए संस्कृत में एक दूसरा शब्द है - "शिश्न".
शिवलिंग भगवान् के निर्गुण-निराकाररूप का प्रतीक है। भगवान् का वह
रूप जिसका कोई आकार नहीं जिसमे कोई गुण (सात्विक,राजसिक और
तामसिक) नहीं है , जो पूरे ब्रह्माण्ड का प्रतीक है और जो शून्य-
अवस्था का प्रतीक है। ध्यान में योगी जिस शांत शून्य भाव
को प्राप्त करते हैं, जो इश्वर के शांत और परम-आनंद स्वरुप
का प्रतीक है उसे ही शिवलिंग कहते हैं।
शिवलिंग में दूध अथवा जल की धारा चढ़ाने से अपने आप मन शांत
हो जाता है ये हम सबका अनुभव है, और इसके पीछे मनोवैज्ञानिक
कारण भी हैं। जो सच्चे ब्राह्मण हैं वो इस बात को जानते हैं
कि शिवलिंग पर जल या दूध चढाते समय "ॐ नमः शिवाय " बोलने
की अपेक्षा केवल "ॐ ॐ " बोलना उत्तम है. शिव अभिषेक करते
समय उसमे भगवान् शंकर के सगुण-साकार रूप का ध्यान
भी किया जा सकता है, किया जाता भी है. भक्त की भावना के अनुसार
सबको छूट है इसी कारण आपने देखा होगा कि बाकी मंदिरों में
मूर्ति का स्पर्श वर्जित होता है पर शिवलिंग का हर कोई स्पर्श कर
सकता है (मासिक धर्म वाली स्त्रियाँ पूरे महीने स्पर्श नहीं कर
सकतीं लेकिन मासिक धर्म खत्म होने के बाद शुद्ध होके कर
सकती है ).
शिवलिंग को भगवान् शंकर का निर्गुण प्रतीक माना जाता है और
भगवान् के सगुण रूप का वास कैलाश पर्वत पर माना गया है. ( कुछ
लोग बहस करते हैं कि भगवान् केवल कैलाश में ही है क्या ??
आदि आदि ; तो सुनो - जैसे भगवान् ने गीता में कहा है कि "
पौधों में मै तुलसी हूँ "," गायों में मै कामधेनु हूँ ", "तीर्थों में मै
प्रयाग हूँ " आदि आदि. इसका मतलब ये है कि जो सबसे पवित्र चीज़
हो उसमे इश्वर का वास मानना चाहिए फिर धीरे धीरे आप सब जगह
भगवान् को देख पाएंगे। पहले आप मित्र में इश्वर को देखोगे तभी बाद
में शत्रु में देख सकोगे) तो कैलाश में भगवान् को जल मिल जाए,
हमारा चढ़ाया हुआ दूध उनको वहां मिल जाए, उसके लिए शिवलिंग के
चारों तरफ "जल - घेरी " बनाई जाती है। जल-
घेरी की दिशा हमेशा उत्तर दिशा की तरफ होनी चाहिए जिससे
हमारा चढ़ाया हुआ दूध या जल सीधा उन तक पहुँच जाए।
और इसी कारण जल-घेरी को कभी लांघते नहीं हैं और शिवलिंग
की आधी परिक्रमा ही करते हैं। सावन में जल लगातार भगवान्
को चढ़ता रहे इसी कारण शिवलिंग के ऊपर जल से भरा हुआ कलश
लटकाया जाता है.
जलघेरी पर कभी दिया नहीं जलाते और शिवलिंग
या तुलसी या किसी भी मूर्ती को दिए की आंच नहीं लगनी चाहिये.
दिया थोडा सा दूर जलाना होता है। शिवलिंग पर चढ़ाया हुआ नारियल
कभी फोड़ा नहीं जाता उसे विसर्जित कर दिया जाता है।
शिवलिंग भगवान् शंकर का प्रतीक होने के कारण उसे तुलसी के नीचे
नहीं रखा जाता, तुलसी के नीचे शालिग्राम (भगवान् विष्णु
का निर्गुण रूप) रखा जाता है. हालांकि शिवलिंग में मंजरी (तुलसी के
फूल) चढ़ाए जाते हैं।
हर हर महादेव
जय महाकाल
Gauda Brahmins and their branches (as per Wikipedia.org)
Pt Ḍori Lāl Śarmā writes that the region from Bengal to Kashmir was Gauḍa country. That is why five major sub-divisions of north Indian brahmins are named Panch-Gauda, after the name Gauḍa. The Sanskrit text Ādi-Gauḍa-dīpikā (आदि गौड़ दीपिका) mentions that the region west of river Gaṇḍaki bounded by Sarayu in west and south and by Himalayas in the north is the core of Gauḍa country and brahmins living here from the beginning (=Ādi) of Creation were known as Ādi-Gauḍa (आदि गौड़). Another story relates Ādi-Gauḍa brahmins of this region to those brahmins who were invited by King Janamejaya in his yajña and settled in the Ādi-Gauḍa region.
Sub-divisions of Gauda brahmins
At present the chief branches of Gauḍa brahmins are:
* Ādi-Gauḍa (in Ādi-Gauḍa region mentioned above).
* Deś Wāli Gauḍa (in Madhyadeś).
* Pachāde Gauḍa (western Gauḍa brahmins).
* Śri Gauḍa (originally from Kashmir, now in Gujarāt, Rājasthān, Mālwā).
Other minor branches of Gauḍa are :
* Pārik (from Parāśara).
* Dāyamā/dadheech brahmins (from Dadhīca).
* Bāḍe Prabhāva Wāle (from Gautama).
* Khaṇḍelwāla (from Khārika).
* Sārsvata (from Sāra, distinct from the Sārasvata brahmins).
* Sukuwāl (from Sukumārga).
* aadi gaur vashistha madhyandini sakha dholpuriya [Bangal----hastinaur{U P}-----dholpur{Raj}-----jevar tappal{U P}----sikri kalan brahmin ghaziabad]
भारतीय नववर्ष (गुड़ी पड़वा )
उगादी (गुड़ी पड़वा) जिसे युगादी से भी जानते हैं, का मतलब है एक नए युग का प्रारंभ. इस वर्ष उगादी त्यौहार मनाया जा रहा है २३ मार्च २०१२ को .इस दिन विक्रमी संवत, सक संवत, सिन्धी नववर्ष तथा तेलगू और कन्नड़ नव वर्ष प्रारंभ होता है.
भारतवर्ष वह पावन भूमि है जिसने संपूर्ण ब्रह्माण्ड को अपने ज्ञान से आलोकित किया है। इसने जो ज्ञान का निदर्षन प्रस्तुत किया है वह केवल भारतवर्ष में ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व के कल्याण का पोषक है। नये वर्ष का आरम्भ अर्थात् भारतीय परम्परा के अनुसार ‘वर्ष प्रतिपदा’ भी एक ऐसा ही विलक्षण उदाहरण है।भारतीय कालगणना के अनुसार इस पृथ्वी के सम्पूर्ण इतिहास की कुंजी मन्वन्तर विज्ञान मे है। इस ग्रह के संपूर्ण इतिहास को 14 भागों अर्थात् मन्वन्तरों में बाँटा गया है। एक मन्वन्तर की आयु 30 करोड़ 67 लाख और 20 हजार वर्ष होती है। इस पृथ्वी का संपूर्ण इतिहास 4 अरब 32 करोड़ वर्ष का है। इसके 6 मन्वन्तर बीत चुके हैं। और सातवाँ वैवस्वत मन्वन्तर चल रहा है।
विश्व की प्रचलित सभी कालगणनाओं मे भारतीय कालगणना प्राचीनतम है। इसका प्रारंभ पृथ्वी पर आज से प्राय: 198 करोड़ वर्ष पूर्व वर्तमान श्वेत वराह कल्प से होता है। अत: यह कालगणना पृथ्वी पर प्रथम मानवोत्पत्ति से लेकर आज तक के इतिहास को युगात्मक पद्वति से प्रस्तुत करती है।
पृथ्वी को प्रभावित करने वाले सातों ग्रह कल्प के प्रारम्भ में एक साथ एक ही अश्विन नक्षत्र में स्थित थे। और इसी नक्षत्र से भारतीय वर्ष प्रतिपदा का प्रारम्भ होता है। अर्थात् प्रत्येक चैत्र मास के शुक्ल पक्ष के प्रथमा को भारतीय नववर्ष प्रारम्भ होता है जो वैज्ञानिक दृष्टि के साथ-साथ सामाजिक व सांस्कृतिक संरचना को प्रस्तुत करता है। भारत में अन्य संवत्सरों का प्रचलन बाद के कालो में प्रारम्भ हुआ जिसमें अधिकांष वर्ष प्रतिपदा को ही प्रारम्भ होते हैं। इनमे विक्रम संवत् महत्वपूर्ण है। इसका आरम्भ कलिसंवत् 3044 से माना जाता है। जिसको इतिहास में सम्राट विक्रमादित्य के द्वारा शुरु किया गया मानते हैं। इसके विषय में अलबरुनी लिखता है कि ”जो लोग विक्रमादित्य के संवत का उपयोग करते हैं वे भारत के दक्षिणी एवं पूर्वी भागो मे बसते हैं।”
इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी भारतीय नववर्ष उसी नवीनता के साथ देखा जाता है। नये अन्न किसानों के घर में आ जाते हैं, वृक्ष में नये पल्लव यहाँ तक कि पशु-पक्षी भी अपना स्वरुप नये प्रकार से परिवर्तित कर लेते हैं। होलिका दहन से बीते हुए वर्ष को विदा कहकर नवीन संकल्प के साथ वाणिज्य व विकास की योजनाएं प्रारम्भ हो जाती हैं। वास्तव में परम्परागत रुप से नववर्ष का प्रारम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही प्रारम्भ होता है।
मकर संक्रांति (Makar Sankranti)
मकर संक्रान्ति हिन्दुओं का प्रमुख पर्व है। मकर संक्रान्ति पूरे भारत में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। पौष मास में जब सूर्य मकर राशि पर आता है जब इस पर्व को मनाया जाता है । यह त्योहार जनवरी माह के तेरहवें, चौदहवें या पन्द्रहवें दिन ( जब सूर्य धनु राशि को छोड़ मकर राशि में प्रवेश करता है ) पड़ता है । मकर संक्रान्ति के दिन से सूर्य की उत्तरायण गति प्रारम्भ होती है । इसलिये इसको उत्तरायणी भी कहते हैं।
उत्तर प्रदेश में यह मुख्य रूप से 'दान का पर्व' है । इलाहाबाद में यह पर्व माघ मेले के नाम से जाना जाता है। १४ जनवरी से इलाहाबाद मे हर साल माघ मेले की शुरुआत होती है। १४ दिसम्बर से १४ जनवरी का समय खर मास के नाम से जाना जाता है। और उत्तर भारत मे तो पहले इस एक महीने मे किसी भी अच्छे कार्य को अंजाम नही दिया जाता था। मसलन शादी-ब्याह नही किये जाते थे पर अब तो समय के साथ लोग काफी बदल गए है। १४ जनवरी यानी मकर संक्रान्ति से अच्छे दिनों की शुरुआत होती है । माघ मेला पहला नहान मकर संक्रान्ति से शुरू होकर शिवरात्रि तक यानी आख़िरी नहान तक चलता है। संक्रान्ति के दिन नहान के बाद दान करने का भी चलन है। बागेश्वर में बड़ा मेला होता है। वैसे गंगास्नान रामेश्वर, चित्रशिला व अन्य स्थानों में भी होते हैं। इस दिन गंगा स्नान करके , तिल के मिष्ठान आदि को ब्राह्मणों व पूज्य व्यक्तियों को दान दिया जाता है। समूचे उत्तर प्रदेश में इस व्रत को खिचड़ी के नाम से जाना जाता है तथा इस दिन खिचड़ी सेवन एवं खिचड़ी दान का अत्यधिक महत्व होता है।
महाराष्ट्र में इस दिन सभी विवाहित महिलाएं अपनी पहली संक्रांति पर कपास, तेल, नमक आदि चीजें अन्य सुहागिन महिलाओं को दान करती हैं। तिल-गूल नामक हलवे के बांटने की प्रथा भी है। लोग एक दूसरे को तिल गुड़ देते हैं और देते समय बोलते हैं :- `लिळ गूळ ध्या आणि गोड़ गोड़ बोला` अर्थात तिल गुड़ लो और मीठा मीठा बोलो। इस दिन महिलाएं आपस में तिल, गुड़, रोली और हल्दी बांटती हैं।
बंगाल में इस पर्व पर स्नान पश्चात तिल दान करने की प्रथा है। यहां गंगासागर में प्रतिवर्ष विशाल मेला लगता है। मकर संक्रांति के दिन ही गंगाजी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा मिली थीं। मान्यता यह भी है कि इस दिन यशोदा जी ने श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिए व्रत किया था। इस दिन गंगासागर में स्नान-दान के लिए लाखों लोगों की भीड़ होती है। लोग कष्ट उठाकर गंगा सागर की यात्रा करते हैं। वर्ष में केवल एक दिन-मकर संक्रांति को यहां लोगों की अपार भीढ़ होती है। इसीलिए कहा जाता है-`सारे तीरथ बार बार लेकिन गंगा सागर एक बार।`
गुजरात में मकर संक्रांति का पर्व महिलाओं के लिए भी मौज-मस्ती का दिन होता है। हालाँकि अन्य प्रदेशों में इस दिन गली-गली गिल्ली-डंडा खेला जाता है, मगर गुजरात में घर-घर लोग पतंगबाजी का मजा लेते हैं।
हरियाणा और पंजाब में इसे लोहड़ी के रूप में मनाया जलाता है। इस दिन अंधेरा होते ही आग जलाकर अग्नि पूजा करते हुए तिल, गुड़, चावल और भुने हुए मक्के की आहुति दी जाती है। इस सामग्री को तिलचौली कहा जाता है। इस अवसर पर लोग मूंगफली, तिल की गजक, रेवड़ियाँ आपस में बांटकर खुशियां मनाते हैं। बहुएं घर घर जाकर लोकगीत गाकर लोहड़ी मांगती हैं। नई बहू और नवजात बच्चे के लिए लोहड़ी का विशेष महत्व होता है। इसके साथ पारंपरिक मक्के की रोटी और सरसों की साग का भी लुत्फ उठाया जाता है।
असम में मकर संक्रांति को माघ-बिहू अथवा भोगाली-बिहू के नाम से मनाते हैं। राजस्थान में इस पर्व पर सुहागन महिलाएं अपनी सास को वायना देकर आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। साथ ही महिलाएं किसी भी सौभाग्यसूचक वस्तु का चौदह की संख्या में पूजन एवं संकल्प कर चौदह ब्राह्मणों को दान देती हैं। अत: मकर संक्रांति के माध्यम से भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की झलक विविध रूपों में दिखती है।
मकर संक्रांति के अवसर पर गंगास्नान एवं गंगातट पर दान को अत्यंत शुभकारक माना गया है। इस पर्व पर तीर्थराज प्रयाग एवं गंगासागर में स्नान को महास्नान की संज्ञा दी गई है। सामान्यत: सूर्य सभी राशियों को प्रभावित करते हैं, किंतु कर्क व मकर राशियों में सूर्य का प्रवेश धार्मिक दृष्टि से अत्यंत फलदायक है। यह प्रवेश अथवा संक्रमण क्रिया छ:-छ: माह के अंतराल पर होती है। भारत देश उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित है। मकर संक्रांति से पहले सूर्य दक्षिणी गोलार्ध में होता है अर्थात भारत से दूर होता है। इसी कारण यहां रातें बड़ी एवं दिन छोटे होते हैं तथा सर्दी का मौसम होता है, किंतु मकर संक्रांति से सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध की ओर आना शुरू हो जाता है। अत: इस दिन से रातें छोटी एवं दिन बड़े होने लगते हैं तथा गरमी का मौसम शुरू हो जाता है। दिन बड़ा होने से प्रकाश अधिक होगा तथा रात्रि छोटी होने से अंधकार कम होगा। अत: मकर संक्रांति पर सूर्य की राशि में हुए परिवर्तन को अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर होना माना जाता है। प्रकाश अधिक होने से प्राणियों की चेतनता एवं कार्यशक्ति में वृद्धि होगी। ऐसा जानकर संपूर्ण भारतवर्ष में लोगों द्वारा विविध रूपों में सूर्यदेव की उपासना, आराधना एवं पूजन कर, उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की जाती है। सामान्यत: भारतीय पंचांग की समस्त तिथियां चंद्रमा की गति को आधार मानकर निर्धारित की जाती हैं, किंतु मकर संक्रांति को सूर्य की गति से निर्धारित किया जाता है। इसी कारण यह पर्व प्रतिवर्ष 14 जनवरी को ही पड़ता है। माना जाता है कि इस दिन भगवान भास्कर अपने पुत्र शनि से मिलने स्वयं उसके घर जाते हैं। चूंकि शनिदेव मकर राशि के स्वामी हैं, अत: इस दिन को मकर संक्रांति के नाम से जाना जाता है। महाभारत काल में भीष्म पितामह ने अपनी देह त्यागने के लिए मकर संक्रांति का ही चयन किया था। मकर संक्रांति के दिन ही गंगाजी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा मिली थीं।
शास्त्रों के अनुसार, दक्षिणायन को देवताओं की रात्रि अर्थात नकारात्मकता का प्रतीक तथा उत्तरायण को देवताओं का दिन अर्थात सकारात्मकता का प्रतीक माना गया है। इसीलिए इस दिन जप, तप, दान, स्नान, श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष महत्व है। धारणा है कि इस अवसर पर दिया गया दान सौ गुना बढ़कर पुन: प्राप्त होता है। इस दिन शुद्ध घी एवं कंबल दान मोक्ष की प्राप्त करवाता है।
प्रभु कृपा दुःख दूर करती है|
इस संसार में जीवों को अनेक सुख-दुखों के साथ जीवन चक्र पूरा करना ही होता है यही प्रकृति का नियम (विधि का विधान) है | लेकिन हम मनुष्यों की उत्कंठा हमेशा दुखों को समाप्त करने की रही है | हम दुखों से सबसे ज्यादा घबराते है तथा उन्हें कम करने के उपाय तलाशते हैं | ज्योतिषाचार्य कई विधान बताते है ग्रहों को सांत करने तथा कष्टों को कम करने के लिए जिनसे बहुत लोग वाफिक हैं |
तुलसी कृत रामचरित मानस से हमें ज्योतिष शास्त्र का उस समय से पूर्व प्रचलन का तथा महत्वपूर्ण सूत्रों का पता चलता है | गोस्वामी तुलसी दास जी ने प्रभु कृपा पर बड़ा जोर दिया है | उन्होंने लिखा है कि इस संसार में जितने भी दुःख हैं, चाहे वह मानसिक, शारीरिक और भोतिक, किसी भी तरह के क्यों न हों, भगवान की कृपा बगैर दूर नहीं होते | रामचरित मानस से कुछ महत्वपूर्ण सूत्र यहाँ उद्धरित हैं:
एक व्याधि बस न मरहीं, ए असाधि बहु व्याधि,
पीड़ही संतत जीव कह सों कहि लहें समाधि |
नेम धर्म आचार तप ग्यान जज्ञ जप दान,
मेषज पूति कीटिन्ह नहीं रोग जाहि हरिजान ||
भावार्थ : जहाँ मनुष्य का जीवन समाप्त करने के लिए या अत्यंत दुःख देने के लिए एक व्याधि ही बहुत है, वहां ऐसी असाध्य बीमारियों की तो गणना ही नहीं है और यह रोग ऐसे हैं जिनके निवारण के लिए कोई जप, यज्ञ, दान इत्यादि काम नहीं करते |
सकल विघ्न व्यापति नहीं तेजी,
राम सुकृपा विलकिहीं जेहि |
भावार्थ : इस नासवान संसार में समस्त विघ्न उस मनुष्य को तंग नहीं करते जिसको भगवान अपनी कृपा द्रष्टि से देखते हैं |
राम कृपा नासही सब रोगा |
जे एही भांति बने सन्जोगा ||
भावार्थ : राम कृपा समस्त रोगों का नाश करने वाली है तथा जब कृपा होती है तो समस्या समाधान के अनेक संयोग बन जाते हैं ||
रामचरित मानस से दो और सूत्र यहाँ दिए हैं जो दुखों से दूर रहने में सहायक हैं:
बिना संतोष न कम नसही |
कम अछत सुख सपनेहु नाही ||
भावार्थ : संतोष ही सबसे बड़ा धन है और जब तक संतोष नहीं होता, तब तक कामनाओ का नाश नहीं होता और इसी प्रकार जब तक कामना रहती है, मनुष्य स्वप्न में भी सुख प्राप्त नहीं कर सकता |
बमोह सकल व्याधिन्ह कर मूला |
तिन ते पुनि उपजहि बहु सूला ||
भावार्थ : किसी वस्तु विशेष से लगाव या प्रेम समस्त व्याधियों की जड़ है | इससे कई तरह के कष्ट रुपी कांटे उपजते है |
आभार : गोस्वामी तुलसी दास द्वारा रचित 'श्री राम चरित मानस'
शरीर कैसे नष्ट होता है! अनुगीता में इसकी व्याख्या.
अनुगीता संस्कृत महाकाव्य महाभारत, अश्वमेधिकापर्व
का हिस्सा है. इसमे अर्जुन के साथ कृष्ण की बातचीत के उस समय का वर्णन है, जब कृष्ण पांडवों के लिए राज्य बहाल करने के बाद द्वारका में लौटने का फैसला किया. अनुगीता में मुख्य रूप से आत्मा के स्थानांतरगमन, मोक्ष प्राप्त करने का मतलब, गुणों और आश्रम, धर्म का वर्णन और तपस्या का प्रभाव आदि विषयों पर चर्चा सामिल है. इसके दुसरे अध्याय में शरीर कैसे नष्ट होता है, इसके वारे में व्याख्या इस प्रकार है.
काश्यप उवाच
कथं शरीरं च्यवते कथं चैवोपपद्यते।
कथं कष्टाच्च संसारात्संसरन्परिमुच्यते॥२॥
काश्यप बोले
शरीर कैसे नष्ट होता है तथा कैसे उत्पन्न होता है? और इस संसार में भ्रमण करते हुए किस प्रकार कष्टों से मुक्त होता है?
आत्मा च प्रकृतिं मुक्त्वा तच्छरीरं विमुञ्चति।
शरीरतश्च निर्मुक्तः कथमन्यत्प्रपद्यते॥३॥
आत्मा किस प्रकार प्रकृति को त्यागकर उस शरीर से मुक्त होती है? और शरीर से निकलकर कैसे दूसरे शरीर को प्राप्त करती है?
कथं शुभाशुभे चायं कर्मणी स्वकृते नरः।
उपभुङ्क्ते क्व वा कर्म विदेहस्योपतिष्ठति॥४॥
किस प्रकार मनुष्य अपने द्वारा किये शुभ और अशुभ कर्मों को भोगता है? और शरीर छोड़ने के पश्चात् मनुष्य के कर्म कहाँ ठहरते हैं?
ब्राह्मण उवाच
एवं संचोदितः सिद्धः प्रश्नांस्तान्प्रत्यभाषत।
आनुपूर्व्येण वार्ष्णेय तन्मे निगदतः शृणु॥५॥
हे वार्ष्णेय! इस प्रकार पूछने पर उस सिद्ध ने यथाक्रम उन प्रश्नों का उत्तर दिया। वह बताते हुए मुझे सुनो।
सिद्ध उवाच
आयुःकीर्तिकराणीह यानि कर्माणि सेवते।
शरीरग्रहणे यस्मिंस्तेषु क्षीणेषु सर्वशः॥६॥
आयुःक्षयपरीतात्मा विपरीतानि सेवते।
बुद्धिर्व्यावर्तते चास्य विनाशे प्रत्युपस्थिते॥७॥
सिद्ध बोले
शरीर को ग्रहण करने पर मनुष्य आयु और यश प्रदान कराने वाले जिन कर्मों को भोगता है, उन कर्मों के सर्वथा क्षीण हो जाने पर, आयु-क्षय के समीप आने पर वह विपरीत प्रकार के कर्मों को भोगता है। विनाश के उपस्थित होने पर उसकी बुद्धि भी विपरीत दिशा में मुड़ जाती है।
सत्त्वं बलं च कालं चाप्यविदित्वात्मनस्तथा।
अतिवेलमुपाश्नाति तैर्विरुद्धान्यनात्मवान्॥८॥
तथा प्रमादपूर्वक अपने सत्त्व, बल तथा काल को बिना जाने उनसे विरुद्ध आत्यधिक भोगों को भोगता है।
यदायमतिकष्टानि सर्वाण्युपनिषेवते।
अत्यर्थमपि वा भुङ्क्ते न वा भुङ्क्ते कदाचन॥९॥
जब मनुष्य सभी अतिकष्टदायक कर्म करता है या फिर अत्यधिक भोजन करता है या फिर कभी भी भोजन नहीं करता है;
दुष्टान्नामिषपानं च यदन्योन्यविरोधि च।
गुरु चाप्यमितं भुङ्क्ते नातिजीर्णेऽपि वा पुनः॥१०॥
जब यह दुष्ट अन्न या आमिष भोजन या मदिरा का सेवन करता है या ऐसे पदार्थों का सेवन करता है जो एक-दूसरे के विरोधि हैं या अत्याधिक भारी भोजन करता है या पिछले भोजन को बिना पचाये भोजन करता है;
व्यायाममतिमात्रं वा व्यवायं चोपसेवते।
सततं कर्मलोभाद्वा प्राप्तं वेगविधारणम्॥११॥
या जब अत्यधिक व्यायाम करता है या अत्यधिक काम का सेवन करता है या शरीर के मलत्याग की क्रियाओं को रोकता है;
रसातियुक्तमन्नं वा दिवास्वप्नं निषेवते।
अपक्वानागते काले स्वयं दोषान्प्रकोपयन्॥१२॥
या अत्यधिक रस से युक्त भोजन करता है या दिन में स्वप्न देखता है या बिना पके हुए भोजन का सेवन करता है, वह समय आने पर अपने शरीर के दोषों को (वात, पित्त और कफ) प्रकुपति कर देता है
स्वदोषकोपनाद्रोगं लभते मरणान्तिकम्।
अथ चोद्बन्धनादीनि परीतानि व्यवस्यति॥१३॥
आपने शरीर के दोषों के कोप से मृत्यु प्राप्त कराने वाले रोगों से ग्रसित हो जाता है अथवा अपने को फाँसी लगाने जैसे कार्यों में व्यवसित हो जाता है।
तस्य तैः कारणैर्जन्तोः शरीराच्च्यवते यथा।
जीवितं प्रोच्यमानं तद्यथावदुपधारय॥१४॥
इन कारणों से जन्तु के शरीर से जिस प्रकार जीवन का अलगाव होता है, उसे मेरे द्वारा बताते हुए यथावत समझो।
ऊष्मा प्रकुपितः काये तीव्रवायुसमीरितः।
शरीरमनुपर्येति सर्वान्प्राणान्रुणद्धि वै॥१५॥
तीव्र वायु के उकसाने पर कुपित ऊष्मा पूरे शरीर को व्याप्त करती है और सभी प्राणों को रोक देती है।
अत्यर्थं बलवानूष्मा शरीरे परिकोपितः।
भिनत्ति जीवस्थानानि तानि मर्माणि विद्धि च॥१६॥
शरीर में अत्याधिक कुपित ऊष्मा जीवस्थानों को भेद देती है। उन स्थानों को मर्म स्थान जानो।
ततः सवेदनः सद्यो जीवः प्रच्यवते क्षरात्।
शरीरं त्यजते जन्तुश्छिद्यमानेषु मर्मसु॥१७॥
तब कष्टपूर्वक जीवात्मा इस क्षर शरीर से अलग हो जाता है। मर्म स्थानों के छेदन होने पर जन्तु अपना शरीर त्याग देता है।